
पत्रकारिता की मौत पर खामोश सरकार: क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ सिर्फ दिखावा है?
भारत में पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह से पत्रकारों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा रहा है, उससे यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या अब यह सिर्फ दिखावे तक ही सीमित रह गया है?
पत्रकारों पर बढ़ते हमले और दबाव
देशभर में पत्रकारों की गिरफ्तारी, धमकियां, हिंसा और सेंसरशिप के मामले बढ़ते जा रहे हैं। रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को या तो मुकदमों में फंसा दिया जाता है या फिर उन्हें चुप कराने के लिए दबाव बनाया जाता है। कई पत्रकारों पर देशद्रोह, मानहानि और आईटी कानूनों के तहत केस दर्ज किए गए हैं।
सरकार की खामोशी पर उठती है सवाल
जब भी किसी पत्रकार पर हमला होता है या उनकी आवाज को दबाने की कोशिश की जाती है, तो सरकार अक्सर खामोश रहती है। सवाल यह उठता है कि क्या सरकार मुक्त पत्रकारिता को खत्म करना चाहती है? मीडिया पर लगातार बढ़ता राजनीतिक और कॉर्पोरेट नियंत्रण भी इसकी स्वतंत्रता पर सवाल खड़े करता है।
मीडिया हाउस भी कठघरे में
बड़े मीडिया संस्थान अब सरकार या कॉरपोरेट हितों के अनुसार काम करने लगे हैं। निष्पक्ष रिपोर्टिंग की जगह प्रोपेगेंडा को प्राथमिकता दी जा रही है। कई स्वतंत्र पत्रकारों और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म को आर्थिक और कानूनी रूप से कमजोर किया जा रहा है ताकि वे सच को सामने न ला सकें।
क्या जनता को परवाह है?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आम जनता को इसकी परवाह है? अगर जनता ही चुप रहेगी, तो निष्पक्ष पत्रकारिता का अंत निश्चित है। लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए जरूरी है कि स्वतंत्र और साहसी पत्रकारिता को समर्थन मिले।
अगर सरकार और सत्ता में बैठे लोग पत्रकारिता की स्वतंत्रता को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं और जनता भी खामोश है, तो यह लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। पत्रकारिता को बचाने के लिए आवाज उठाना जरूरी है, क्योंकि अगर मीडिया मर गया तो लोकतंत्र भी जिंदा नहीं रहेगा।
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